एक छोटी पुरानी कहानी रबीन्द्रनाथ टैगोर
कहानी सुनानी पड़ेगी ? पर और नहीं सुना सकता। अब इस थके असमर्थ व्यक्ति को छुट्टी देनी पड़ेगी।
यह पद मुझे किसने दिया बताना मुश्किल है। धीरे-धीरे एक-एक करके तुम पाँच लोग आकर मेरे चारों तरफ कब इकट्टे हो गए, और क्यों मुझ पर अनुग्रह किया और मुझसे प्रत्याशा की, यह बताना मेरे लिए कठिन है। जरूर वह तुम्हारे अपने गुणों के कारण है; सौभाग्यवश मेरे प्रति सहसा तुम लोगों का अनुग्रह जागृत हुआ था। और जिस प्रकार उस अनुग्रह की रक्षा हो सके, उस चेष्टा में यथासंभव त्रुटि नहीं हुई।
किन्तु पाँच लोगों की अव्यक्त अनिर्दिष्ट सम्मति से जो कार्यभार मेरे प्रति अर्पित हुआ मैं उसके योग्य नहीं हूँ। क्षमता है या नहीं, यह लेकर विनय या अहंकार नहीं करना चाहता किन्तु प्रधान कारण यह है कि विधाता ने मुझे एकाकी जीव के रूप में बनाया है। ख्याति, यश, जनता के लिए उपयोगी वगैरह बनाकर मेरे शरीर को सख्त... चमड़ी नहीं दी; उनका यह विधान था कि यदि तुम आत्मरक्षा करना चाहते हो तो थोड़ा अकेलेपन में रहो । हृदय भी अकेले रहने के लिए सदा उत्कंठित रहता है। किन्तु बाबा बिना दिखे परिहास में हो या भूल समझ कर ही हो, मुझे एक बहुत बड़े जनसमाज में उतार कर इस वक्त मुँह पर कपड़ा लगाये हँस रहे हैं; मैं उनकी इस हँसी में योग देने, की चेष्टा कर रहा हूँ किन्तु किसी तरह सफल नहीं हो पा रहा।
ऐसा नहीं लगता कि पलायन करना मेरा कर्तव्य है। सैन्यदल में ऐसे बहुत से लोग हैं जो स्वभाव से युद्ध की अपेक्षा शांति में अधिक स्फूर्ति पाते हैं, किन्तु जब वे अपने और दूसरों के भ्रमवश युद्धक्षेत्र के बीच आ जाते हैं, तब अचानक दल तोड़कर भागना उन्हें शोभा नहीं देता। भाग्य अच्छी तरह सोचकर प्राणियों को उनकी सामर्थ्य के अनुसार काम में लगाता है, पर फिर भी दिया गया काम दृढ़ निष्ठा के साथ करना मनुष्य का कर्तव्य है।
तुम्हें जरूरी लगता है इसलिए मेरे पास आते हो, और सम्मान दिखाने में भी भूल नहीं करते। आवश्यकता ख़त्म हो जाने पर आज्ञाकारी सेवक धर्म के प्रति अवज्ञा दिखाकर कुछ आत्मगौरव अनुभव करने की चेष्टा भी करते हो। पृथ्वी पर साधारणतः यही स्वाभाविक है और इसी कारण ही 'साधारण' नामक एक अकृतज्ञ अव्यवस्थित चित्त राजा पर उसके अनुचर वर्ग का पूरा विश्वास नहीं होता। किन्तु पक्ष विपक्ष की ओर देखने से हमेशा सब काम करना नहीं हो पाता। निरपेक्ष होकर काम न करने से काम का गौरव नहीं रहता।
अतएव यदि कुछ सुनने की इच्छा से आते हो तो कुछ सुनाऊँगा। थकान नहीं मानूँगा और उत्साह की प्रत्याशा भी नहीं करूँगा।
पर आज एक छोटी और धरती की बहुत पुरानी एक कहानी याद आ रही है। मनोहर न होते हुए भी छोटी होने के कारण धैर्य टूटने की संभावना नहीं है।
धरती की एक बड़ी नदी के तट पर एक बड़ा जंगल था। उसी जंगल में और उसी नदी के किनारे पर एक कठफोड़वा और एक दीर्घच्चु पक्षी रहते थे।
जब धरती पर कीड़े सुलभ थे तब भूख मिटाने के लिए दोनों सन्तुष्ट चित्त से धरती के यश का गाना गाते हुए तन्दुरुस्त शरीर लिये घूमते थे।
समय के साथ दैवयोग से धरती पर कीड़े मुश्किल हो उठे। तब नदी के तीर पर स्थित पक्षी ने शाखा पर बैठे कठफोड़वा से कहा, 'भाई कठफोड़वा, बाहर से बहुतों को यह धरती नई श्यामल सुन्दर लगती है पर मुझे तो यह शुरू से अन्त तक जीर्ण लगती है।'
शाखा पर बैठे कठफोड़वा ने नदी-तट पर बैठे पक्षी से कहा, 'भाई दीर्घच्चु, बहुत से लोग इस जंगल को सतेज शोभनीय मानते हैं, किन्तु मैं कहता हूँ यह एकदम अन्तःसारविहीन है।'
तब दोनों ने मिलकर यही प्रमाणित करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। पक्षी ने नदी के तट पर छलाँग मारकर धरती की नरम कीचड़ पर बराबर चोंच मारकर वसुन्धरा की जीर्णता दिखाने लगा और कठफोड़वा वनस्पति की कठिन शाखाओं पर बार-बार चोंच मारकर जंगल के अन्दर के खोखलेपन को दिखाने लगा।
विधि की विडम्बना से ऊपर बताये गए दोनों अध्यवसायी पक्षी संगीत विद्या से वंचित थे। अतएव जब कोयल धरती पर बसन्त के नये आगमन की घोषणा पंचम स्वर में करने लगी और जब श्यामा जंगल में नई सुबह के उदित होने पर कीर्तन करने लगी, तब भी दोनों भूखे असन्तुष्ट मूक प्राणी बिना थके उत्साहपूर्वक अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते रहे।
यह कहानी तुम लोगों को अच्छी नहीं लगी ? अच्छी लगने की बात ही नहीं थी। पर इसका सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण गुण यह है कि यह पाँच-सात पैराग्राफ में पूरी हो गई।
तुम्हें नहीं लगता कि यह कहानी पुरानी है ? इसका कारण यह है कि धरती पर भाग्य के दोष से यह कहानी बहुत पुरानी होते हुए भी हमेशा नई रही। बहुत दिन से अकृतज्ञ कठफोड़वा पृथ्वी के दृढ़ मज़बूत अमर महत्त्व के ऊपर ठक-ठक शब्द से चोंच मार रहा है, और दीर्घच्चु पक्षी पृथ्वी की सरस उर्वर कोमलता को चोंच से खचू- खचू की आवाज्ञ से बींध रहा है--आज भी उसका अन्त नहीं हुआ, मन में जो शिकायत है वह बनी हुई है।
पूछ रहे हो कहानी में सुख-दुःख की क्या बात है? इसमें दुःख की कहानी भी है और सुख की भी। दुःख की यह है कि पृथ्वी जितनी भी उदार क्यों न हो और जंगल कितना भी महान क्यों न हो, मामूली चोंचें अपना खाद्य न पाने पर उन पर आघात करती ही हैं। सुख की बात यह है कि फिर भी सैकड़ों सालों से धरती नई और जंगल हरेभरे हैं। यदि कोई मरता है तो वह वे दोनों विद्वेषी विष जर्जर हतभागे पक्षी हैं, और दुनिया में कोई इस बारे में नहीं जान पाता।
तुम लोग इस कहानी में सिर-पैर कुछ नहीं समझ पाये ? अर्थ कोई विशेष जटिल नहीं है, शायद कुछ उम्र होने पर समझ पाओगे।
जो भी हो सब मिलाकर चीज तुम्हारे लायक नहीं बन पाई ?
इसमें तो कोई संदेह नहीं है।
भाद्र, 1300